Akrura going to Gokuldham for taking Shree Krishna and Balarama.



भागवत दशम स्कंध:- श्रीकृष्ण कथा-भाग-57...जय श्री कृष्णा...अक्रूरजी की ब्रज यात्रा...(1)
अक्रूरजी भगवान को लेने रहे हैं।

महामति अक्रूरजी रात मथुरा पुरी में बिता कर प्रात:काल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिए ।

वे इस प्रकार सोचने लगे।

'मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन- सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा' ।

बड़े-बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते- उन भगवान के दर्शन मेरे लिया अत्यंत दुर्लभ है, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र्कुल के बालक के लिए वेदों का कीर्तन ।

परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही ।
अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गए ।
आज मेरा जन्म सफल हो गया।

क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी- पतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं ।

ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों की अपसना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिए भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं - भगवान् के वे ही चरणकमल मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा ।

रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं।
वे मुझे अवश्य अपना लेंगे।

यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा ।

हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा।

विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो।
बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं।

अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।

आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। >

भागवत दशम स्कंध:- श्रीकृष्ण कथा-भाग-58अक्रूरजी की ब्रज यात्रा...(2) अब आगे.......अक्रूरजी ने मार्ग में में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं।

जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजी ने गोष्ट में उनके चरण चिन्हों के दर्शन किये ।

उन चरण चिन्हों के दर्शन करते ही अक्रूरजी के ह्रदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभालन सके, विह्वल हो गए ।
प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा ।

वे रथ से कूदकर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे- 'अहो ! यह हमारे प्रभु के चरणों कि रज है' ।

नेत्रों में आंसू भर आये और टप- टप टपकने लगे ।

अक्रूरजी नेसोचा इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा।

इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा।

ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं।

मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं।

मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं।
मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं।

मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार?

ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।

वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है।
अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं ।

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