Divine Shree MadBhagwat open mystery about the life.

                                                 





                                                             -:श्रीमद् भगवदगीता:-
 
 पहले अध्याय का माहात्म्य......!

 श्री पार्वती जी ने कहाः- भगवन् ! आप सब तत्त्वों के ज्ञाता हैं ।

आपकी कृपा से मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले,जो समस्त लोक का उद्धार करने वाले हैं।

देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हूँ, जिसका श्रवण करने से श्रीहरि की भक्ति बढ़ती है ।

श्री महादेवजी बोलेः-

जिनका श्रीविग्रह अलसी के फूल की भाँति श्याम वर्ण का है, पक्षिराज गरूड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महाविष्णु की हम उपासना करते हैं ।

एक समय की बात है मुर दैत्य के नाशक भगवान विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुखपूर्वक विराजमान थे।
उस समय समस्त लोकों को आनन्द देने वाली भगवती लक्ष्मी ने आदरपूर्वक प्रश्न किया ।

श्रीलक्ष्मीजी ने पूछाः-

भगवन ! आप सम्पूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?

श्रीभगवान बोलेः-

सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ ।

यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार-तत्त्व निश्च्चित करते हैं।

वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निष्पन्द तथा द्वैत रहित है ।

इस जगत का जीवन उसी के अधीन है ।
मैं उसी का अनुभव करता हूँ ।

देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता साप्रतीत हो रहा हूँ ।

श्रीलक्ष्मीजी ने कहाः-

हृषिकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं ।
आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है ।
इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं आप सर्वसमर्थ हैं ।
इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये।

श्री भगवान बोलेः-

प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक,भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है ।
शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है ।
वही मेरा ईश्वरीय रूप है ।

आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है ।

गीताशास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है ।

अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करे हुए कहाः-

भगवन ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है?
मेरे इस संदेह का निवारण कीजिए ।

श्री भगवान बोलेः-

सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ ।

क्रमश पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो ।

इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाङमयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए ।

यह ज्ञानमात्र से ही महान पातकों का नाश करने वाली है ।
जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है ।

श्री लक्ष्मीजी ने पूछाः-

देव! सुशर्मा कौन था? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई?

श्रीभगवान बोलेः-

प्रिय ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था ।
पापियों का तो वह शिरोमणि ही था ।
उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य और क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था ।

वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अतिथियों का सत्कार ।
वह लम्पट होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही लगा रहता था ।

हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था ।
उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था ।
इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घकाल व्यतीत कर दिया ।

एक दिन मूढ़बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिए किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था ।

इसी बीच मे कालरूपधारी काले साँप ने उसे डँस लिया ।
सुशर्मा की मृत्यु हो गयी ।
तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मृत्युलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ ।

उस समय किसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिए उसे खरीद लिया ।

बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताए ।

एक दिन पंगु ने किसी ऊँचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया ।
इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्च्छित हो गया ।

उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गये।

उस जनसमुदाय में से किसी पुण्यात्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिए उसे अपना पुण्य दान किया ।

तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके लिए दान किया ।

उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी ।
उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिए कुछ त्याग किया ।

तदनन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये।
वहाँ यह विचारकर कि यह वेश्या के दिये हुए पुण्य से पुण्यवान हो गया है, उसे छोड़ दिया गया फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ ।

उस समय भी उसे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण बना रहा ।

बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछाः-

'तुमने कौन सा पुण्य दान किया था ?'

वेश्या ने उत्तर दियाः-

'वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है ।
उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है |
उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिए दान किया था ।'

इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा ।

तब उस तोते ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया ।

शुक बोलाः-

पूर्वजन्म में मैं विद्वान होकर भी विद्वता के अभिमान से मोहित रहता था ।
मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा।
फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा ।
उसके बाद इस लोक में आया ।
सदगुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ ।

पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता- पिता से वियोग हो गया ।

एक दिन मैं ग्रीष्म ऋतु में तपे मार्ग पर पड़ा था ।
वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया ।
वहीं मुझे पढ़ाया गया ।

ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे ।
उन्हीं से सुनकर मैं भी बारं बार पाठ करने लगा ।

इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया ।
तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया ।

पूर्वकाल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापों को दूर किया है ।
फिर उसी से इस वेश्या का भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से ये द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पाप मुक्त हुए हैं ।

इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहात्म्य की प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये।

इसलिए जो गीता के प्रथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है,उसे इस भवसागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती ।

Shree MadBhagwat Katha self describe by The Lord Krishna when The Lord Krishna stand the battle field
of MahaBharat ,this battle field, Arjuna feel a very sad to think that he wold be fight with his relative,the Lord
Krishna want the matter why Arjuna feel very sad in the battle field of MahaBharat.

The Lord self say that he also living in the Geeta,So he always follow the Geeta.The Lord Shiva tell to adi-Shakti Parvati how the lord do work with depend on The Shree MadBhagwat.They are giving a message
all people in world who believe this holy book of India,the Geeta message also prove by Many religion
Guru ,who belong to other religion.

Some people not accept the Geeta message but we know very well last time only one thing come your life
as like a new ray which help you to raise from dark night in your life but these happen be when the Lord
Radha-Krishna bless you.


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